वीडियो: गवाह, हथियार और आईना — मेरी कुछ निजी टिप्पणियाँ
मैं बार-बार यही सोचता हूँ कि हमारे समय की सबसे अनिश्चित चीज़ क्या है — सूचना की सच्चाई या उसकी पहुंच? स्मार्टफोन की छोटी सी स्क्रीन ने हमें गवाह भी बनाया है और—वक़्तों पर—जज भी। हालिया खबरों और वीडियो के ढेर ने मुझे कई बार बेचैन कर दिया है।
जो मैंने पढ़ा और देखा — कुछ संकेत
ग्रेटर नोएडा में दहेज से जुड़ी वे भयावह घटनाएँ — जहाँ एक महिला को कथित तौर पर जिंदा जलाया गया, और उसकी बहन ने मीडिया से बात की, खुद कई वीडियो बनाकर साझा किए गए — ने मुझे हिलाकर रख दिया। यह कहानी NDTV पर विस्तार से आई थी “पापा ने टॉप मॉडल स्कॉर्पियो…”।
सामुदायिक सार्वजनिक झगड़ों के छोटे-छोटे वीडियो भी हमारे फीड भर रहे हैं — गाजियाबाद में कुत्ता खाना खिलाने के विवाद का एक क्लिप जिसे Jagran ने उठाया ‘वीडियो बनाती रहो तुम…’। दिल्ली मेट्रो की झड़पें, सड़कों पर हुई मारपीट, सब कुछ एक प्रकार की निरंतरता बन गया है — कैमरा हमेशा तैयार रहता है।
सोशल मीडिया पर लोग अपनी प्राइवेसी के लिए भी अपील करते नज़र आते हैं — “प्लीज़ मेरा वीडियो न बनाएं… प्रिवेसी का मामला है 🙏🙏” जैसा छोटा सा यूट्यूब शॉर्ट्स भी इसी द्वंद्व को दिखाता है (YouTube Short).
और फिर, वीडियो सिर्फ़ संवेदनाएँ नहीं जगाते — वे मनोरंजन, सीएसआर, और लाइव टीवी के रूप में भी उपभोक्ता ध्यान खींचते हैं। Prime Video जैसे प्लेटफ़ॉर्म पर लाइव चैनल और Amazon पर लाइव इवेंट यह याद दिलाते हैं कि ‘लाइव’ का अर्थ अब सिर्फ़ खबर नहीं, बल्कि एक संस्कृति है (Prime Video Live TV).
वैश्विक मुद्दों का कवरेज भी वीडियो के माध्यम से गहरा होता जा रहा है — PBS की रिपोर्टिंग हमें युद्ध और मानवीय त्रासदियों के सामने खड़ा करती है, जहाँ वीडियो गवाही और दलील दोनों बन जाते हैं (PBS Videos).
मेरे लिए चिंताजनक तीन बातें
वीडियो का द्विधा-स्वभाव
मैं अक्सर सोचता हूँ: वही उपकरण जो साक्ष्य बनता है, वह ही कब उद्घोषणा और निर्लज्ज प्रदर्शन भी बन जाता है। दहेज हत्याएँ जैसी घटनाओं में वीडियो अपराध की पुष्टि भी कर सकता है और पीड़ित की निजता व गरिमा को बार-बार तोड़ने वाला तत्व भी बन सकता है NDTV।
परफ़ॉर्मेटिव बयॉन्ड-न्याय
एक वीडियो वायरल होते ही हमारा निर्णय-क्षेत्र छोटा हो जाता है — तात्कालिकता, गुस्सा, और रस्मी न्याय की मांग इतनी तेज़ हो जाती है कि धैर्य और जांच की जगह सोशल-पब्लिक ट्रिब्यूनल ले लेता है। Jagran का ग्रेज़ियाबाद मामला दिखाता है कि कैसे छोटी बहसें भी कैमरे के सामने बड़े द्रिश्यों में बदल जाती हैं Jagran।
निगरानी बनाम सहानुभूति
हर घृणास्पद क्लिप रिपोर्टिंग का अच्छा स्रोत बन सकती है, पऱ क्या उस रिपोर्टिंग में इंसानियत बचती है? एक तरफ़ Lallantop में मनोरंजन-दुनिया के वीडियो की चर्चा दिखती है — जहाँ एक अभिनेता का वीडियो फ़ैन्स की भावनाओं को बदल देता है — और दूसरी तरफ़ पीड़ितों के निजी वीडियो, जिन्हें बार-बार दिखाया जाना उनके दुःख को दोहराता है The Lallantop।
क्या ये सिर्फ़ तकनीक की विफलता है, या कुछ गहरा?
मैं समझता हूँ कि यह सिर्फ़ फोन या प्लेटफ़ॉर्म का मसला नहीं है। यह हमारी सामाजिक संस्कृति का प्रश्न है — कैसे हम निगरानी, साक्ष्य और सार्वजनिक नैरेटिव के बीच संतुलन बनाएँ:
- कब वीडियो को दस्तावेज़ माना जाए और कब वह पीड़ित की आंतरिक जख्म को दोबारा खोल देने वाला तत्व बन जाए?
- क्या वायरल होना ही अब न्याय का पर्याय बन गया है?
- और सबसे महत्त्वपूर्ण: क्या वीडियो का होना हमें असली कार्रवाई से दूर तो नहीं कर रहा — जैसे कि सिस्टम सुधार, न्यायिक प्रक्रिया और सामाजिक परिवर्तन?
मेरे भीतर की चुप्पी और प्रश्न
मैंारे पास वीडियो का अम्बार है — AajTak, NDTV और अन्य चैनल रोज़ नई क्लिप दिखाते हैं AajTak, NDTV Videos। पर मेरे मन में एक सरल लेकिन गहरी चिंता रहती है: क्या यह सब देखने की आदत हमें कुछ अनदेखा करवा रही है — हमारी सहानुभूति, हमारी जिम्मेदारी, और हमारी संवेदनशीलता?
मैं इन सवालों के साथ खड़ा रहता हूँ — कड़वे, परेशान और थोड़ा आश्वस्त भी कि मीडिया और हमारे व्यक्तिगत निर्णय मिलकर इस संस्कृति को बदल सकते हैं। पर मुझे यह भी एहसास है कि बदलाव के लिए सिर्फ़ तकनीक ठीक करने से काम नहीं चलेगा; हमें अपनी दृष्टि, शिक्षा और सार्वजनिक नीति की ज़रूरत होगी।
Regards,
Hemen Parekh
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